Thursday 30 August 2012

जा रहा आदमी...


निचुड़ चुका रक्त सभी आदमी की देह का

सूख गया सोत सब मन में बसे नेह का

फिर भी क्या बचा जिसे बचा रह है आदमी

जाने किस मुकाम पे ये जा रहा है आदमी |

 

आदमी की भूख बिक रही सरे बाजार में

बेबसी की गंध है हर प्यार के इकरार में

हाथ में ज़हर का जाम और है खबर उसे

फिर भी बेखबर से पिये जा रहा है आदमी |

 

मखमली गद्दों पे देखो आदमी बेचैन है

करवटों पे करवटें और नींद से महरूम है

फावड़ा जिसने चलाया दिन की तपती धूप में

मस्त टूटे झोंपड़े में सो रहा है आदमी |

 

छीनकर कितने उजाले शाह अँधेरे दिये

जहर बुझे तीरों से कितने खुदा जख्मी किये

है बहाया खून सच्चाई का हर इक जन्म में

पाप के धब्बों को अब तक धो रहा है आदमी |

 

हर किसी को जुस्तजू है, चैन की आराम की

एक पल उजली सुबह की, एक रंगीनी शाम की

उम्र भर दौड़ा फिरा है हाथ में जिंदगी लिये

ज़िंदगी न पा सका है ज़िंदगी भर आदमी |

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