तुम हो
सूरज की किरण
या रूप की तुम रोशनी हो
तुम मधु की
हो मधुरता
नव-रसों
की चांदनी हो |
कोमलता हो
तुम कमल की
या उषा की लालिमा हो
चंद्र की
तुम चन्द्रिका
जो दूर करती कालिमा को |
भावना हो
संत की
सुन्दर सुकवि की पंक्ति-सी
कामना हो ‘काम’ की
तुम रूप की ज्वाला रति-सी |
तुम यमुना
की निर्मलता हो
और गंगा की पावनता हो
दीप हो तुम
देव गृह का
और मानव की मानवता |
हाय
मानवता! क्यों मानव
ही तेरा शत्रु होता है ?
क्यों
फूलों की राहों में
वो विष के कांटे ही बोता है|
तुम सरिता
हो अरमानों की
कब परवाह की पाषाणों की
कब चिंता
की ग्रामों, नगरों की
या फैले वीरानों की |
तुम जा
मिलती हो सागर से
अपने प्रियतम नर नागर से
भर कर हुंकार
बुलाता जो
निज लहरों में खो जाता जो |
फिर तुम भी
विलय हो जाती हो
चिर लहरों में खो जाती हो
ढूंढने
छिपे मुक्तागण को
अन्तस में गोते खाती है
काश! वह
सागर मैं होता
तुम होती वह जलधारा
तुम मिलने
आती गा गा कर
गीत सुरीला प्यारा |